जमशेदपुर के ग्रामीण अंचलों में गूंजी सोहराय की धुन: दीवाली के बाद शुरू होगा मवेशियों के प्रति कृतज्ञता का 5 दिवसीय पर्व, घरों की दीवारों पर उकेरी जा रही हैं जीवंत कलाकृतियाँ

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जमशेदपुर। लौह नगरी जमशेदपुर से सटे ग्रामीण क्षेत्रों में इन दिनों दीपावली के ठीक बाद शुरू होने वाले आदिवासियों के सबसे बड़े पर्वों में से एक सोहराय की रंगीन तैयारियाँ जोरों पर हैं। यह पर्व न केवल मवेशियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का माध्यम है, बल्कि यह आदिवासी संस्कृति और परंपरा को जीवंत रखने की गूँज भी है।शहर से सटे करनडीह, सरजामदा, रानीडीह, हलुदबनी, पुरीहासा, तालसा, नरा, काचा, बेड़ाढीपा, बागबेड़ा समेत गदड़ा-गोविंदपुर आदि गाँवों में इस समय सोहराय की तैयारी देखते ही बन रही है।

झोपड़ीनुमा घर बने कलाकृतियों का कैनवास

सोहराय की तैयारियों के तहत, गाँवों की झोपड़ीनुमा मिट्टी से लिपी हुई घर की दीवारें अब कलाकृतियों का कैनवास बन गई हैं। आदिवासी महिलाएँ और बच्चियाँ गोबर, मिट्टी, चूना और प्राकृतिक रंगों का उपयोग कर इन दीवारों पर खूबसूरत सोहराय पेंटिंग बना रही हैं।इन चित्रों में पशुओं के झुंड, पेड़-पौधों की टहनियाँ, पारिवारिक जीवन और आदिवासी संस्कृति की परंपराओं के दृश्य उकेरे गए हैं। इन कलाकृतियों में गाय, बैल, मोर, हिरन, हाथी और घोड़े जैसी आकृतियाँ प्रमुख होती हैं। इन चित्रों में सिर्फ सजावट नहीं, बल्कि जीवन और ऋतु परिवर्तन के साथ चलने वाले ग्रामीण दर्शन की झलक मिलती है।

दिवाली के दूसरे दिन से 5 दिन का महापर्व

आदिवासी महिलाओं का कहना है कि उन्हें साल भर सोहराय त्यौहार का इंतजार रहता है। दीपावली के दूसरे दिन से 5 दिनों तक यह उनका महापर्व चलता है।सोहराय पर्व मूल रूप से मवेशियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का पर्व है। इस दौरान, किसान फसल की कटाई के बाद अपने पशुधन को स्नान कराते हैं, उन्हें तेल लगाकर सजाते हैं और उनकी विशेष पूजा-अर्चना करते हैं। पांच दिनों तक इन बैल और गायों से कोई काम नहीं करवाया जाता है।

मांदर और नगाड़े की धुन पर थिरकता गाँव

सोहराय एक ऐसा पर्व है जहाँ धरती, जल, हवा और जीव सभी की महत्ता को सम्मान दिया जाता है।गाँवों में महिलाएँ समूह बनाकर गीत गाती हैं, जिनमें धान की खुशहाली, पशुधन की समृद्धि और परिवार की सुख-समृद्धि की कामना गूंजती है। इन गीतों के साथ ही पुरुष मांदर और नगाड़ा बजाते हैं, जिससे पूरा गाँव झूम उठता है। युवा पीढ़ी भी इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही है।एक आदिवासी महिला ने बताया, “हम मिट्टी, गोबर और पेड़ के रंगों से अपने घर-आंगन को लीपकर पेंटिंग के जरिए अपनी आदिवासी संस्कृति को दिखाते हैं, जिससे आने वाली पीढ़ी को हमारी संस्कृति की जानकारी मिल सके।” इस त्यौहार में पीठा-पुआ जैसे कई मीठे व्यंजन भी बनाए जाते हैं।जमशेदपुर के नजदीकी गाँवों में इन दिनों हर घर नया रूप ले चुका है, जहाँ मिट्टी से लिपे आँगन, फूलों की सजावट और रंगीन दीवारें एक अद्भुत, पारंपरिक और जीवंत दृश्य प्रस्तुत कर रही हैं।

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