क्रांतिकारी कलम के सिपाही यशपाल: साहित्य को बनाया समाज-परिवर्तन का सशक्त माध्यम, विद्रोह और मार्क्सवाद रही लेखनी की धुरी

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जमशेदपुर: हिंदी साहित्य के महान कथाकार और क्रांतिकारी विचारक यशपाल (निधन: 26 दिसंबर, 1976) केवल एक साहित्यकार नहीं थे, बल्कि सामाजिक रूढ़ियों, अन्याय और राजनीतिक पाखंड के विरुद्ध खड़े एक प्रबल पक्षधर थे। उनके लिए साहित्य आत्ममुग्ध कला नहीं, बल्कि अपने विचारों को व्यापक जन-समुदाय तक पहुंचाने का सशक्त माध्यम था, जिसने उन्हें अपने समकालीनों से अलग पहचान दी।

क्रांतिकारी जीवन का साहित्य पर गहरा प्रभाव

यशपाल की साहित्यिकता का निर्माण विद्रोह और क्रांति की जिस चेतना से हुआ, वह उनके समस्त लेखन का केंद्रीय भाव बनी रही। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) से जुड़े एक सक्रिय क्रांतिकारी के रूप में उन्होंने जो अनुभव अर्जित किए, वे उनकी रचनाओं में जीवंत रूप से प्रतिफलित हुए।जेल की यातनाएं, साथियों की शहादत और स्वतंत्रता संग्राम के उथल-पुथल भरे दिनों ने उनकी लेखनी को पैनी धार दी।

मार्क्सवाद और साहित्य का माध्यम

जेल से रिहा होने के बाद यशपाल ने लेखन शुरू किया और साहित्य को भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने के एक माध्यम के रूप में देखा।मार्क्सवाद उनकी पसंदीदा विचारधारा बनी, हालाँकि वे किसी भी राजनीतिक दल में शामिल नहीं हुए। उनकी पहली रचना, ‘पिंजरे की उड़ान’, एक उल्लेखनीय सफलता थी। उन्होंने हिंदी भाषा की पत्रिका कर्मयोगी के लिए काम किया, जिसके बाद 1941 में बंद होने तक उन्होंने अपनी खुद की पत्रिका ‘विप्लव’ (प्रलय) स्थापित की, जो हिंदी और उर्दू में प्रकाशित हुई। 1941 में उन्होंने विप्लव कार्यालय नामक एक प्रकाशन गृह और 1944 में साथी प्रेस नामक एक प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की।

प्रमुख रचनाएं और स्त्री-मुक्ति का स्वर

यशपाल की रचनाओं में उनकी क्रांतिकारी चेतना हर प्रकार की यथास्थिति पर प्रश्न खड़ा करती थी।उनकी शुरुआती काल्पनिक रचनाएँ—’दादा कामरेड’ (जिसमें कम्युनिस्ट पार्टी केंद्रीय विषय थी) और ‘देशद्रोही’—प्रकाशित हुईं। बाद में, ‘झूठा सच’ में विभाजन की त्रासदी और मानवीय पीड़ा का मार्मिक वर्णन है। उनकी आत्मकथा, ‘सिंहावलोकन’ (1951-55 के बीच तीन खंडों में प्रकाशित), सशस्त्र स्वतंत्रता संघर्ष के विस्तृत विवरण के लिए जानी जाती है। ‘दिव्या’ और ‘देशद्रोही’ जैसी रचनाओं में स्त्री पात्र विद्रोही चेतना से संपन्न स्वतंत्र व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने पितृसत्तात्मक समाज की जकड़नों को बेबाकी से चुनौती दी।

यशपाल का महत्व उनकी जनपक्षधरता में है। उन्होंने साहित्य को जनता की सरल, सहज और प्रवाहमय भाषा में लिखा, जिससे वे जनसाधारण से सीधे संवाद करते थे। आज जब समाज में अन्याय और असमानता के नए रूप सामने आ रहे हैं, तब यशपाल का साहित्य हमें याद दिलाता है कि लेखक केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि समाज का चिंतक और परिवर्तन का वाहक भी होता है।

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